जयपाल जुलियस हन्ना अवार्ड रिपोर्ट 2022
प्रथम जयपाल-जुलियस-हन्ना साहित्य अवार्ड देश के तीन आदिवासी साहित्यकारों को प्रदान किया गया
झारखंडी भाषा साहित्य संस्कृति अखड़ा द्वारा यूके स्थित एएचआरसी रिसर्च नेटवर्क लंदन, टाटा स्टील फाउंडेशन, और प्यारा केरकेट्टा फाउंडेशन के सहयोग से आयोजित प्रथम जयपाल-जुलियुस-हन्ना साहित्य पुरस्कार समारोह तथा बहुभाषाई आदिवासी-देशज काव्यपाठ का भव्य आयोजन 6 नवम्बर 2022 (रविवार) को रांची (झारखंड) स्थित प्रेस क्लब सभागार में किया गया। इस अवसर पर देश के विभिन्न हिस्सों से आदिवासी लेखकों, शोधकर्ताओं, संस्कृतिकर्मियों एवं साहित्य प्रेमियों ने भाग लिया।
इस प्रतिष्ठित पुरस्कार से तीन आदिवासी साहित्यकारों को सम्मानित किया गया: 1. रेमोन लोंग्कू (तांग्सा समुदाय, अरुणाचल प्रदेश) को उनके ताजगी से भरे रचना-संग्रह "कोंग्कोंग-फांग्फांग" के लिए। 2. सुनील गायकवाड़ (भील समुदाय, महाराष्ट्र) को उनके ऐतिहासिक-सांस्कृतिक उपन्यास "डकैत देवसिंग भील के बच्चे" के लिए। 3. उज्ज्वला ज्योति तिग्गा (उरांव समुदाय, दिल्ली) को उनकी कविताओं और "धरती के अनाम योद्धा" काव्य-श्रृंखला के लिए मरणोपरांत सम्मान प्रदान किया गया। कार्यक्रम की अध्यक्षता साहित्य-संस्कृति अखड़ा की अध्यक्ष ग्लोरिया सोरेंग ने की, जबकि संचालन महासचिव वंदना टेटे एवं अश्विनी कुमार पंकज ने किया।
समारोह के मुख्य अतिथि जम्मू-कश्मीर के वरिष्ठ गोजरी आदिवासी साहित्यकार जान मुहम्मद हकीम थे। उन्होंने कहा कि “अपने पुरखों को याद कर उन्हें इतिहास के पन्नों में जीवित रखना हम सबका कर्तव्य है।” उन्होंने गोजरी भाषा की स्थिति पर प्रकाश डालते हुए बताया कि यह जम्मू-कश्मीर की तीसरी सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है, जिसे संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल किया जाना चाहिए। उन्होंने यह भी बताया कि गुर्जर-बकरवाल समुदाय की सामाजिक-आर्थिक स्थिति देश के अन्य आदिवासी समुदायों जैसी ही है।
पुरस्कृत साहित्यकारों ने भी मंच से अपने विचार और भावनाएं साझा कीं। रेमोन लोंग्कू ने कहा कि यह आयोजन उनके लिए एक सीखने का अवसर है। उन्होंने कृषि कार्य के दौरान गाया जाने वाला तांग्सा गीत “साइलो साइलाई असाइलाई चाई…” प्रस्तुत किया, जो श्रोताओं को भावविभोर कर गया।
सुनील गायकवाड़ ने अपने वक्तव्य में कहा कि “अंग्रेजी शासन के दौर में महाराष्ट्र के कई आदिवासी योद्धाओं को ‘डकैत’ करार दिया गया। ‘डकैत देवसिंग भील के बच्चे’ मेरे दादा की संघर्षगाथा है, जिसे मैंने शब्दों में पिरोया है।”
डॉ अनुज लुगुन ने अपने वक्तव्य में आदिवासी साहित्य की सामूहिक चेतना पर बल देते हुए कहा कि “यह साहित्य किसी एक व्यक्ति की अनुभूति नहीं, बल्कि सामूहिक पीड़ा, प्रतिरोध और सांस्कृतिक स्मृति की जीवंत अभिव्यक्ति है। यह आलोचनात्मक चेतना के साथ हमारे समाज के अनुभवों को रेखांकित कर रहा है।”
कार्यक्रम में सुंदर मनोज हेम्ब्रम और डॉ सावित्री बड़ाईक ने भी विचार रखे। एक विशेष आकर्षण बहुभाषीय आदिवासी काव्यपाठ रहा, जिसमें विभिन्न भाषाओं व बोलियों – तांग्सा, भीली, उरांव, मुंडारी, संथाली, हो, गोजरी आदि में कवियों ने अपनी रचनाओं का पाठ किया।
इस आयोजन ने न केवल आदिवासी साहित्य को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाई, बल्कि एक संवाद का मंच भी तैयार किया, जहां देशभर से आये रचनाकारों ने साझा इतिहास, सांस्कृतिक अस्मिता और समकालीन चुनौतियों पर चर्चा की।
यह पुरस्कार समारोह आदिवासी लेखन की विविधता, गहराई और संघर्षशीलता को सम्मानित करने की दिशा में एक ऐतिहासिक पहल के रूप में चिह्नित किया गया। समारोह में बड़ी संख्या में विद्यार्थियों, शोधार्थियों, पत्रकारों और समाजकर्मियों ने उपस्थिति दर्ज की।
संक्षेप में, प्रथम जयपाल-जुलियुस-हन्ना साहित्य पुरस्कार समारोह न केवल एक सम्मान समारोह था, बल्कि यह आदिवासी साहित्य के व्यापक कैनवास को रेखांकित करने वाला एक समग्र सांस्कृतिक उत्सव भी था।
रिपोर्ट प्रस्तुतिः अखड़ा टीम