जयपाल जुलियस हन्ना साहित्य अवार्ड 2024 से पुरस्कृत आदिवासी साहित्यकार
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शिखा मिंज
शिखा मिंज उरांव आदिवासी समुदाय से हैं और पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग जिले के बाघाजोत, थानझोड़ा चाय बागान की निवासी हैं। उनका जन्म 7 मार्च 1998 को माँ सुमिला मिंज और पिता शंकर मिंज के यहाँ हुआ। चाय बागान के श्रमिक परिवेश में पली-बढ़ीं शिखा ने शुरुआती पढ़ाई खोड़ीबाड़ी जे.आर. हिंदी हाई स्कूल से की। इसके बाद कालीपद घोष तराई महाविद्यालय से स्नातक और उत्तर बंगाल विश्वविद्यालय से हिन्दी में परास्नातक की डिग्री प्राप्त की। शिखा मिंज की रचनात्मक पहचान हिन्दी और सादरी दोनों भाषाओं में कविता करने वाली युवा कवयित्री के रूप में उभर कर सामने आई है।
उनकी कविताएँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं और ‘चाय की सिसकियाँ’ नामक संकलन में भी उनकी कविताओं को स्थान मिला है। ‘निरदन’ उनका पहला स्वतंत्र और प्रकाशित काव्य संग्रह है, जिसने हिन्दी साहित्य-जगत में एक नई आवाज को स्थान दिया है — वह आवाज, जो चायबागान के जीवन, संघर्ष, दुःख, प्रतिरोध और आकांक्षाओं को एक ठोस कलात्मक मंच प्रदान करती है। ‘निरदन’ केवल एक काव्य संग्रह नहीं है, बल्कि यह चायबागान की नई पीढ़ी की चेतना, अनुभव और प्रतिरोध की काव्यात्मक अभिव्यक्ति है। इसमें संकलित कविताएँ उस जीवन के भीतर से निकली हैं, जिसे अक्सर साहित्य में हाशिए पर रखा गया। इस संग्रह की कविताएँ चाय बागानों के श्रमिक समुदाय, विशेषकर आदिवासी समाज की पीड़ा, संघर्ष, भाषा, विस्थापन, श्रम और सांस्कृतिक अस्मिता की बात करती हैं। यह संग्रह एक तीव्र किन्तु शांत प्रतिरोध है — ऐसा प्रतिरोध जो नारेबाज़ी से नहीं, बल्कि संवेदनशीलता और सौंदर्य के साथ अपने पाठकों को झकझोरता है। इसकी कविताएँ पाठक के भीतर बेचैनी और चेतना दोनों पैदा करती हैं — जैसे कोई गरम और कड़वा घूँट, जो केवल स्वाद ही नहीं देता, बल्कि नींद भी तोड़ता है। ‘निरदन’ की कविताएँ पाठकों को अवाक् भी करती हैं और वाचाल भी — यह वाचालता चाय श्रमिकों के पक्ष में और उनके अधिकारों की लड़ाई में एक सृजनात्मक हस्तक्षेप बन जाती है।
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विनोद मोतीराम आत्राम
विनोद आत्राम की औपचारिक शिक्षा स्नातक स्तर तक हुई, लेकिन उनका असली शिक्षालय रहा जंगलों, पहाड़ों, नदियों और खेतों से घिरा उनका गाँव — जहाँ उन्होंने प्रकृति के निसर्ग सौंदर्य, पशु-पक्षियों की बोलियों और लोक परंपराओं से आत्मिक संबंध बनाया। विनोद मोतीराम आत्राम — गोंड आदिवासी समाज से आने वाले एक संवेदनशील कवि, कृषक और सांस्कृतिक प्रतिनिधि — का जन्म 1 जनवरी 1982 को महाराष्ट्र के नांदेड़ ज़िले में हुआ। वे अपनी ज़मीन से जुड़े एक सरल लेकिन विचारशील जीवन जीते हैं। उनकी माँ का नाम रेनुकाबाई आत्राम और पिता का नाम मोतीराम संभाजी आत्राम है।
वे अपने जीवनसाथी लीलाबाई आत्राम के साथ किसान जीवन में संलग्न हैं और अपनी मिट्टी से गहरे जुड़े हुए हैं। यही उनका पहला साहित्यिक पाठशाला भी बना। छात्र जीवन में जब वे कॉलेज गए और गाँव के शांत, आत्मीय वातावरण से बाहर शहरी शैक्षणिक दुनिया में पहुँचे, तब उन्होंने जीवन के नए आयामों को देखा और समझा। यह टकराव — अपने पारंपरिक जीवनशैली और औपचारिक आधुनिक शिक्षा के बीच — उनके भीतर एक गहरा साहित्यिक मंथन बन गया। हालाँकि आर्थिक अभाव और प्रकाशन संसाधनों की कमी के कारण उनकी कई कविताएँ लंबे समय तक अनसुनी और अप्रकाशित रहीं, लेकिन उन्होंने अपनी लेखनी को रोके बिना गोंडी में सृजन करते रहना चुना। इसी निरंतर साधना का परिणाम है उनका पहला प्रकाशित कविता-संग्रह ‘हिरवाल मेटा’ — जिसका अर्थ है 'हरियाली का पहाड़'। ‘हिरवाल मेटा’ न केवल एक काव्य-संग्रह है, बल्कि यह गोंड जीवन-दृष्टि, प्रकृति से सह-अस्तित्व, श्रम, स्मृति और संस्कृति की आत्मा का दस्तावेज़ है। यह संग्रह उस भाषा में रचा गया है जिसे भारत के अधिकांश साहित्यिक विमर्शों में अब तक जगह नहीं मिली थी। लेकिन विनोद आत्राम की कविताएँ दिखाती हैं कि साहित्य केवल शहरी बौद्धिकता की जागीर नहीं, बल्कि वह भी हो सकता है जो खेतों में पसीना बहाने वाले किसान के भीतर उपजता है, जंगल के किनारे बैठे हुए सोचने से जन्म लेता है, और लोक की भाषा में अपने समाज से संवाद करता है।
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आलबिनुस हेम्ब्रम
झारखंड के पाकुड़ ज़िले के पहाड़पुर गाँव में 25 जुलाई 1995 को जन्मे आलबिनुस हेम्ब्रम एक उभरते हुए संताली साहित्यकार, चिंतक और सामाजिक कार्यकर्ता हैं। वे श्री सकाल हेम्ब्रम और श्रीमती बहाफुल मुर्मू के सुपुत्र हैं। उनके बचपन का परिवेश आदिवासी संस्कृति, भाषा और प्रकृति से गहराई से जुड़ा हुआ था, जिसने उनके भीतर समुदाय, पहचान और विरासत को लेकर एक मजबूत चेतना विकसित की। यही चेतना आज उनके साहित्यिक लेखन और सामाजिक सक्रियता की आधारशिला है। श्री हेम्ब्रम की प्रारंभिक शिक्षा संत मरिया गोरेटी स्कूल, तोराई से हुई। इसके बाद उन्होंने संत जोसेफ स्कूल, गुहियाजोरी, दुमका से माध्यमिक शिक्षा प्राप्त की और पाकुड़ राज +2 कॉलेज से उच्चतर माध्यमिक शिक्षा पूरी की। तत्पश्चात उन्होंने आंध्र प्रदेश के आंध्र लोयोला कॉलेज, विजयवाड़ा से स्नातक डिग्री प्राप्त की। वर्तमान में वे पुणे स्थित ज्ञानदीप इंस्टिट्यूट ऑफ फिलॉसफी एंड थियोलॉजी में दर्शनशास्त्र का अध्ययन कर रहे हैं।
संताली भाषा और संस्कृति के संवर्धन के क्षेत्र में आलबिनुस हेम्ब्रम का योगदान उल्लेखनीय है। वे हिंदी कविता-संग्रह ‘सूर्योदय’ के सह-लेखक हैं, और उनकी स्वतंत्र रचनाएँ प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं। वे संताली मासिक पत्रिका मारसलताबोन के संपादक भी हैं, जो युवाओं को लेखन की दिशा में प्रेरित करती है और संताली साहित्य के नए स्वर रचने का मंच प्रदान करती है। उनकी लेखनी आदिवासी जीवन-दर्शन, समुदाय की स्मृतियाँ, जल-जंगल-जमीन से जुड़ाव, और भाषा की सांस्कृतिक गरिमा जैसे विषयों के इर्द-गिर्द घूमती है। उनके कार्यों में परंपरा और आधुनिकता के बीच संवाद की कोशिश दिखाई देती है। उनकी कविताओं में प्रकृति कोई निष्क्रिय पृष्ठभूमि नहीं बल्कि एक जीवित, आत्मीय शक्ति के रूप में उपस्थित रहती है। वे भाषा को केवल संवाद का माध्यम नहीं, बल्कि आत्म-संरक्षण और आत्म-गठन का औजार मानते हैं। इसी दृष्टिकोण और प्रतिबद्धता की परिपक्व अभिव्यक्ति उनके संताली काव्य संग्रह ‘सिरजो़नरे जीवेदो़क’ (अर्थात् ‘सृजन का जीवन’) में देखने को मिलती है। यह संग्रह संताली कविता की समकालीन धारा में एक मौलिक हस्तक्षेप है। इसमें कवि ने न केवल आदिवासी जीवन की विविध छवियों को उकेरा है, बल्कि भाषा के शिल्प और संवेदना को भी नई ऊँचाई दी है। संग्रह की कविताएँ सामुदायिक स्मृति, संघर्ष, सांस्कृतिक अस्तित्व और भविष्य की संभावनाओं को साथ लेकर चलती हैं। ‘सिरजो़नरे जीवेदो़क’ को वर्ष 2024 का जयपाल जुलियस हन्ना साहित्य सम्मान प्रदान किया गया — यह पुरस्कार समकालीन आदिवासी साहित्य में मौलिक दृष्टिकोण, सांस्कृतिक प्रतिबद्धता और भाषा के नवाचार को मान्यता देने हेतु दिया जाता है। इस संग्रह को सम्मानित करने के पीछे मुख्य कारण यह रहा कि आलबिनुस हेम्ब्रम की कविताएँ संताली जनजीवन की जटिलताओं को एक अत्यंत संवेदनशील और प्रामाणिक ढंग से प्रस्तुत करती हैं। उन्होंने पारंपरिक प्रतीकों और बिंबों को आधुनिक संवेदनाओं से जोड़ते हुए एक ऐसा काव्य-संसार रचा है, जो स्थानीय होकर भी सार्वजनीन है। उनकी भाषा-शैली में सहजता और गहराई दोनों है, और उनकी रचनाएँ आदिवासी युवा पीढ़ी के लिए प्रेरणा का स्रोत बन रही हैं।
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इन तीनों लेखकों की रचनाएँ भारतीय आदिवासी जीवन, संघर्ष, और उनकी सांस्कृतिक धरोहर को प्रकाश में लाती हैं। इनकी कृतियाँ न केवल साहित्यिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं, बल्कि आदिवासी समाज के अस्मिता और उनके संघर्षों को भी सही तरीके से प्रस्तुत करती हैं।
हम हैं – धरती के संरक्षक, स्थिरता के रचनाकार.
आदिवासी साहित्यिक जगत में बीस से अधिक वर्षों का अनुभव