आदिवासी
साहित्य से तात्पर्य उस साहित्य से है जिसमें आदिवासियों का
जीवन और समाज उनके दर्शन के अनुरूप अभिव्यक्त हुआ है। आदिवासी साहित्य
को विभिन्न नामों से पूरी दुनिया में जाना जाता है। यूरोप और अमेरिका
में इसे नेटिव अमेरिकन लिटरेचर, कलर्ड लिटरेचर, स्लेव लिटरेचर और
अफ्रीकन-अमेरिकन लिटरेचर, अफ्रीकन देशों में ब्लैक लिटरेचर और
ऑस्ट्रेलिया मेें एबोरिजिनल लिटरेचर, तो अंग्रेजी में इंडीजिनस
लिटरेचर, फर्स्टपीपुल लिटरेचर और ट्राइबल लिटरेचर कहते हैं। भारत में
इसे हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषाओं में सामान्यतया ‘आदिवासी साहित्य’ ही
कहा जाता है। गैर-आदिवासी साहित्य की अध्ययन परंपरा आदिवासी साहित्य को
दो श्रेणी में विभाजित करती हैै -
1. वाचिक परंपरा का आदिवासी (लोक) साहित्य
2. लिखित (शिष्ट अथवा आधुनिक) आदिवासी साहित्य
ऑरेचर : आदिवासी साहित्यकार इस विभाजन को
स्वीकार नहीं करते। वे मानते हैं कि चूंकि उनका जीवनदर्शन किसी भी
विभाजन के पक्ष में नहीं है, उनके समाज में समरूपता और समानता है,
इसलिए उनका साहित्य भी विभाजित नहीं है। वह एक ही है। वे अपने साहित्य
को ‘ऑरेचर’ कहते हैं। ऑरेचर अर्थात् ऑरल लिटरेचर। उनकी स्थापना है कि
उनके आज का लिखित साहित्य भी उनकी वाचिक यानी पुरखा साहित्य की परंपरा
का ही साहित्य है। हालांकि गैर-आदिवासी साहित्यिक और अकादमिक जगत में
अभी भी वाचिक साहित्य की स्वीकार्यता ज्यादा है।
आदिवासी लेखक ‘आदिवासियत’ के तत्वों का निर्वाह करने वाले साहित्य को
ही आदिवासी साहित्य के रूप में स्वीकार करते हैं। ऐसे लेखकों और
साहित्यकारों के भारतीय आदिवासी समूह ने 14-15 जून 2014 को रांची
(झारखंड) में आयोजित दो दिवसीय राष्ट्रीय सेमिनार में इस अवधारणा को
ठोस रूप में प्रस्तुत किया, जिसे ‘आदिवासी साहित्य का रांची
घोषणा-पत्र’ के तौर पर जाना जा रहा है और अब जो आदिवासी साहित्य विमर्श
का केन्द्रीय बिंदु बन गया है।
आदिवासी साहित्य वाचिक तौर पर अपनी मूल आदिवासी भाषाओं में बहुत समृद्ध
और विपुल है। भारत में लिखित आदिवासी साहित्य की शुरुआत बीसवीं सदी के
आरंभिक दौर में होती है जब औपनिवेशिक दिनों में आदिवासी समुदाय आधुनिक
शिक्षा के संपर्क में आते हैं। विशेषकर, झारखंड और उत्तर-पूर्व के
आदिवासी इलाकों में। तब से लेकर आज तक अंग्रेजी और हिंदी, बांग्ला,
ओड़िया, असमी, मराठी आदि अन्य भारतीय भाषाओं में आदिवासी साहित्य लेखन
निरंतर प्रगति पर है और हर वर्ष सौ से अधिक आदिवासी रचित पुस्तकें
विभिन्न भाषाओं में प्रकाशित हो रहा है।
प्यारा केरकेट्टा फाउंडेशन भारत का एकमात्र आदिवासी प्रकाशक है जो
समुदाय के सहयोग से पिछले 18 सालों से हिंदी-अंग्रेजी सहित 12 आदिवासी
एवं देशज भाषाओं में किताबें छाप रहा है।
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