मध्य भारत के आदिवासियों में खड़िया समुदाय आस्ट्रोलॉयड मानव-समूह का अंग है, जिसकी भाषा आस्ट्रिक भाषा परिवार की आस्ट्रोएशियाटिक शाखा के मुंडा समूह में आती है। जनसंख्या की दृष्टि से मुंडा ग्रुप में संताली, मुंडारी और हो के बाद खड़िया का स्थान है। खड़िया आदिवासियों ने अपने निवास के लिए मध्य भारत के पठारी भाग को ही चुना, जहाँ ऊँची पहाड़ियाँ, घने जंगल और पहाड़ी नदियाँ तथा झरने हैं। सरत चंद्र राय के अनुसार खड़िया लोगों की आबादी बंगाल के बाँकुड़ा, भिवनापुर, बीरभूम और पुरूलिया जिलों में, झारखंड के सिमडेगा, लोहरदगा, गुमला, रांची और सिंहभूम जिलों में, मध्यप्रदेश के रायगढ़, सारंगगढ़, शक्ति, छिंदवाड़ा, दुर्ग, बिसालपुर, जयपुर और उदयपुर में और उड़ीसा के सुंदरगढ़ व मयूरभंज जिलों में अधिक है। मुख्यतः खड़िया लोग शंख, कोयल, ईब और महानदी की तराई में निवास करते हैं।
खड़िया समुदाय मुख्यतः एक ग्रामीण खेतिहर समुदाय है। लेकिन इसका एक हिस्सा, जो लोग शबर या हिल खड़िया कहे जाते हैं, वे अभी भी आहार-संग्रह अवस्था में हैं। उनकी जीविका शिकार, मधु, रेशम के कोये, रस्सी और फल तथा जंगली कन्दों पर आधारित है। जंगल साफ करके वे लोग खेती द्वारा कुछ गोंदली, मडुवा, उरद, धान आदि भी पैदा करते हैं।
खड़िया आदिवासियों के उपभेद : 1. हिल खड़िया या शबर खड़िया
2. डेलकी या ढेलकी खड़िया
3. दूध खड़िया
। हिल खड़िया पूर्णतया जंगलों पर निर्भर हैं। इसलिए ये कहीं जमकर रह नहीं पाते, और न खेती कर पाते हैं। ये घुमन्तु जीवन व्यतीत करते हैं। जबकि डेलकी और दूध खड़िया, हिल खड़िया की अपेक्षा अधिक विकसित हैं। ये खेती करते हैं और गाँव बसाकर रहते हैं।
खड़िया धर्म : खड़िया समुदाय का धर्म और दर्शन, आग्नेय कुल की अन्य जातियों के धर्म और दर्शन की तरह ही जटिल नहीं है। इनका धर्म और विश्वास प्रकृति पर आधरित है। सूर्य को ये शक्ति और जीवन का मूल स्रोत मानते हैं और अपने सृष्टिकर्त्ता ईश्वर को ‘पोनोेमोसोर’ कहते हैं। जिसे मुण्डा लोग ‘सिंगबोंगा’ और उरांव आदिवासी ‘बिड़ीनाद’ या ‘धर्मेस’ कहते हैैं।
खड़िया दर्शन : खड़िया आदिवासी समुदाय कर्मफल पर विश्वास नहीं करते। उनका विश्वास है कि मनुष्य मर कर फिर खड़िया समुदाय में और उसी वंश में जन्म लेता है। इस तरह पूर्वजों का सर्म्पक हमेशा बना रहता है, निरन्तरता बनी रहती है। खड़िया समुदाय चाहे उसने किसी भी धर्म को स्वीकार कर लिया है, विश्वास करता है कि मनुष्य के अन्दर दो शक्तियाँ हैं जिसे ‘चइन’ या ‘प्राण’ और ‘लोंगोय’ या छाया कही गई है। जब तक मनुष्य जीवित है, प्राण उसके अन्दर रहता है। प्राण रहने तक नाड़ी चलती है और साँस ली जाती है। प्राण के निकलते ही मृत्यु हो जाती है।
पर्व-त्योहार : खड़िया समुदाय के पर्व-त्योहार और उत्सवों में सबसे पहले पोनोमोसोर, उसके बाद-‘देव पितर’ या बूढ़ा-बूढ़ी की पूजा होती है। ‘देव-पितर’ की प्रतिदिन भोजन से पहले और हंड़िया पीने से पहले स्मरण किया जाता है। अन्य आत्माओं को अलग-अलग समयों में स्मरण करते हैं। खड़िया आदिवासी के मुख्य पर्व-त्योहार हैं -
सरहुल या जंकोर, दिमतङ पूजा या गोशाला पूजा, बाअ बिड्बिड् या धानबुनी
जोओडेम या नवाखानी
और बंदई।